space satellite: जब सैटेलाइट (Satellite) अपनी कक्षा में पहुंचता है तब भी उसे पृथ्वी (Earth) के वायुमंडल से जूझना पड़ता है. पृथ्वी की सतह से 320 किलोमीटर की ऊंचाई पर भी बहुत कम मात्रा में सही, लेकिन हवा के अणु रहते हैं वे सैटेलाइट को धीमा करते हैं जिससे उनका आवेग कम होता है और वे नीचे की ओर खिंचते हैं. इससे उनके खत्म होने का खतरा बना रहता है. वैज्ञानिक अब इस हवा के अणुओं को ईंधन के तौर पर उपयोग करने की तकनीक पर काम कर रहे है जिससे सैटेलाइट अपनी कक्षा (Orbit of Earth) में बने रह सकें
इस तकनीक का नाम एयर स्कूपिंग इलेक्ट्रिक प्रपल्शन (ASEP) है जिस पर पिछले कई दशकों से अंतरिक्ष के क्षेत्र में चर्चा चल रही है.एरोस्पेस कॉर्पोरेशन में प्रकाशित शोधपत्र के मुताबिक यह तकनीक सैटेलाइट (Satellite) संचालकों के लिए एक गेमचेंजर साबित हो सकती है. सैटेलाइट को इस तकनीक से युक्त करने से यान पिछले किसी भी सैटेलाइट की तुलना में ज्यादा नीचे की ऊंचाई पर काम करने लगेगा. इससे पृथ्वी (Earth) के अवलोकन, संचार सेवाएं बेहतर होंगी और अंतरिक्ष के कचरे से निपटने में भी मदद मिलेगी.
एयर स्कूपिंग तकनीक (Air Scooping Technology) पहली बार 1960 के दशक में प्रस्तावित की गई थी. यह इलेक्ट्रिक प्रपल्शन (Electric Propulsion) की शाखा थी. परंपरागत रॉकेट में जहां इंजन रासायनिक ऊर्जा का उपयोग होता है वहीं इसमें इलेक्ट्रिक प्रपल्शन में विद्युत का उपोयग प्रोपेलैंट (Propellant) का तेज करने और बाहर निकालने के लिए होता है.

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यह प्रपोलैंट आमतौर पर एक निष्क्रिय, बिना जंग लगाने वाली जिनोन जैसी गैस होती है जो बाहर निकलती है. विद्युत शक्ति रासायनिक रॉकेट की तुलना में ज्यादा निकास गति देते हुए अधिक कारगर होती है. लेकिन बहुत ज्यादा मात्रा में ऊर्जा नहीं दे सकती है. इलेक्ट्रिक प्रपल्शन हवा के अणुओं के खिंचाव से निपटने में उपयोगी होती है जिससे यान की ऊंचाई कायम रहती है.
एयर स्कूप (Air Scoop) कुछ अलग तरह से काम करते हैं. सीमित जिनोन गैस की की जगह एएसईपी (ASEP) इंजन हवा के अणुओं को ही प्रपोलेंट (Propellant) के तौर पर उपयोग करते हैं और आसपास के अणुओं को जमाकर अपने टैंक को फिर से भर लेते हैं. ये समय समय पर यान अपनी सौर ऊर्जा के जरिए इलेक्ट्रिक इंजन का भी उपयोग कर यान को गिरने से बचाते रहते हैं. एयर स्कूपिंग सैटेलाइट का प्रपोलैंट कभी खत्म नहीं होता है और ये वेरी लो अर्थ ऑर्बिट (VLEO), यानि केवल 200 किमी की ऊंचाई में अनंतकाल तक काम कर सकते हैं.
यहां सामान्य अंतरिक्ष यान कुछ ही दिनों में धरती पर गिर जाते हैं. शोधकर्ताओं के मुताबिक यह ग्रीन तकनीक है, इसमें सौर ऊर्जा का उपयोग होता है, कोई रसायन नहीं लगता और इसमें केवल हवा आती और जाती है. यहां कोई रसायनशास्त्र नहीं लगता.
अभी तक कोई भी अंतरिक्ष यान इस तकनीक से नहीं उड़ा है. लेकिन 2017 में जापान की स्पेस एजेंसी जाक्सा (JAXA) ने सूबामें नाम का एक सुपर लो एल्टीट्यूड टेस्ट सैटेलाइट (SLATS) यान उड़ाया था. इसमें एक इलेक्ट्रिक इंजन के साथ जिनोन प्रपोलैंट उपयोग में लाया गया था. इसने एक ऐसी कक्षा कायम की थी जिसमें यान 167 किलोमीटर ऊंचाई तक आ गया था. यह गिनीज वर्ल्ड रिकॉर्ड बना था.
सैटेलाइट (Satellite) के पृथ्वी (Earth) के पास रहने के बहुत फायदे हैं. सैटेलाइट की तस्वीर अधिक विभेदन की होंगी. संचार सैटेलाइट के संकेत जल्दी पहुंच सकेंगे जो शेयर बाजार, खुद की दिशा तय करने वाली कारें, ऑनलाइन गेमिंग जैसे गतिविधियों में फायदेमंद होंगी. VLEO के सैटेलाइट के जरिए मोबाइल फोन को सीधे और तेजी से सुविधाएं दी जा सकेंगी. इस तरह से सेवा प्रदाताओं में येकाफी लोकप्रिय हो जाएंगे.
ASEP तकनीक में इंजन की सटीकता बहुत अहम है. इसमें पर्याप्त संख्या में अणु आते रहना चाहिए लेकिन ज्यादा अणुओं का खिंचाव भी सैटेलाइट (Satellite) को नीचे धकेल सकता है. लेकिन इसे ज्यादा ऊर्जा से नियंत्रित किया जा सकता है जिसके लिए ज्यादा कारगर सौर पैनल सुलझा सकते हैं. इस कक्षा में उपकरणों में जंग लग सकती है. ये मुद्दे तो सुलझाए भी जा सकते हैं. लेकिन ये सैटेलाइट रात को खुली आंखों से ही दिखाई दे सकते हैं. जिससे अंतरिक्ष में प्रकाश प्रदूषण (light Pollution) की समस्या हो सकती है जिसमें ज्यादा सैटेलाइट अंतरिक्षीय पिंडों को देखने में बाधक होते हैं.
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